स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ विचारों का वास होता है


यह तो अविवादित सत्य है कि आज के बढ़ते औद्योगीकरण और तकनीकी विकास ने इंसान को ऐसी अति-आधुनिक सुख-सुविधाएँ प्रदान की हैं, जिनके कारण उसका जीवन अप्रत्याशित रूप से सरल और सहज बन गया है। लेकिन यह भी उतना ही सत्य है कि बढ़ते औद्योगीकरण और उन्नत औद्योगिकी के कारण पृथ्वी के प्राकृतिक वातावरण में व्यवधान उत्पन्न हो गया है। इस व्यवधान ने प्रकृति के स्वाभाविक सामंजस्य को असंतुलित कर दिया है और, चूँकि मानव-जीवन प्रकृति का अभिन्न अंग हैं, इसलिए बढ़ते प्राकृतिक असंतुलन ने इंसान के जीवन को भी असंतुलित कर दिया है। फलस्वरूप आज का बिगड़ा पर्यावरण मनुष्य के स्वास्थ्य को बहुत ज्यादा प्रभावित कर रहा है।

मनुष्य का स्वास्थ्य निस्संदेह उसकी बड़ी पूंजी है क्योंकि स्वास्थ्य शरीर में ही स्वस्थ विचारों का वास होता है। स्वस्थ विचारों में रचनात्मकता, तीव्रता और तत्परता होती है, और साथ ही कुछ कर गुजरने की इच्छा ही नहीं, क्षमता भी होती हैं। स्वस्थ शरीर में ही खुशहाल मन रहता है, और एक संतुष्ट और खुशहाल मन में ही यह सामर्थ्य होती है कि वह मानव मात्र के लिए सद्भावना रख सके और बिना किसी भेदभाव के स्व्यं अपने, अपने परिवार, देश और समाज के विकास के बारे में विचार कर सके। ऐसे हालातोंमें कहा जा सकता हैं, कि मनुष्य का अच्छा स्वास्थ्य न केवल उसके अपने लिए बल्कि उसके परिवार, देश और समाज सभी के लिए बहुत अहमियत रखता है। इसलिए मनुष्य के स्वास्थ्य पर पर्यावरण का कुप्रभाव निश्चय ही चिंता का विषय है।


पर्यावरण



पर्यावरण पर चर्चा करते समय सबसे पहले हम इस तथ्य पर विचार करेंगे कि आखिर इस शब्द का तात्पर्य क्या है। आम तौर पर समझा जाता है कि वायु, जल, मिट्टी और पेड़-पौधे मिलकर पर्यावरण बनाते हैं। यह सच तो हैं, किंतु सीमित अर्थों में। व्यापक रूप से हम कह सकते हैं कि मनुष्य के आसपास का सारा वातावरण, घर के भीतर और बाहर, सभी कुछ पर्यावरण का एक हिस्सा है। इसलिए, यदि पानी और हवा का प्रदूषण मनुष्य के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो सकता है, तो साथ ही घरों में इस्तेमाल होने वाली बहुत-सी आम चीजें भी हमारे पर्यावरण को दूषित करती हैं।

पर्यावरण और उसके दुष्प्रभाव को मूल रूप से दो भागों में बाँट सकते हैं— बाहरी और भीतरी।


बाहरी प्रदूषण



घर के बाहर हमें अधिकतर पर्यावरण के जिन अंगों का समाना करना पड़ता हैं, वे हैं :

1. वायु
2. जल, और
3. ध्वनि।

पर्यावरण के इन बाहरी भागों, उनसे होने वाले प्रदूषण, उसके कुप्रभाव वगैरह की चर्चा इतनी ज्यादा हो चुकी है कि आमतौर पर आज सभी जानते हैं कि किस तरह ये मानव शरीर को प्रभावित करते हैं।


वायु और स्वास्थ्य



पूरी पृथ्वी में वायु व्याप्त है। यह पर्यावरण का ऐसा अंग है जिनके बिना जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती। स्वच्छ वायु में सांस लेकर ही हम स्वस्थ जीवन व्यतीत करते हैं। ऐसे में, जब वायु प्रदूषित हो जाती है तो मानव सांस लेते समय प्रदूषित हवा अपने भीतर लेता है जो उसके पूरे शरीर में फैल जाती है। ये प्रदूषित वायु मनुष्य के शरीर में विषैले पदार्थ पहुँचाती है जिनके कारण उसकी श्वास-प्रणाली प्रभावित होती है। फलस्वरूप, खाँसी, जुकाम से लेकर दमा जैसी बीमारियाँ उसे घेर लेती हैं। वायु प्रदूषण के कारण एलर्जी और दमा जैसी आम बीमारियों से लेकर कैंसर जैसी घातक बीमारी होने की संभावना होती है।

साथ ही प्रदूषित वायु मनुष्य की त्वचा को भी प्रभावित करती है। वर्तमान समय में जितनी ज्यादा मात्रा में त्वचा संबंधी रोग सामने आते हैं, उतने शायद ही पहले कभी आए हों। और यह तो स्वाभाविक ही है। हमारे शरीर में त्वचा ही वो भाग है, जो सबसे पहले वायु के संपर्क में आती है। ऐसे में यदि वह प्रदूषित वायु के संपर्क में आएगी, तो जाहिर तौर पर वायु प्रदूषण की परते हमारी त्वचा पर जमती जाएँगी और शीघ्र ही त्वचा संबंधी रोग के रूप में उभरेंगी।

फैक्ट्रियों और यातायात के साधनों से होने वाले धुएँ से न केवल सांस की बीमारियों का खतरा होता है, बल्कि ये पृथ्वी को बाहरी वातावरण से बचाने वाली ओजोन लेयर के लिए भी बहुत ही घातक सिद्ध हो रहे है। जाहिर है हमारे पर्यावरण को प्रभावित करने वाले ये हालात न केवल रोगों की संभावना प्रबल करते हैं, बल्कि हमारी पृथ्वी के लिए बहुत बड़ा खतरा बन चुके हैं।


समाधान



1. स्पष्टतः पर्यावरण को नुकसान पहुँचाने वाले दूषित धुएँ से बचने के लिए पर्यावरण के अनुकूल साधनों की खोज, विकास और प्रयोग आवश्यक है।
2. पेड़-पौधे वातारण से कार्बन डाइऑक्साइड खींचते हैं, और बदले में स्वच्छ ऑक्सीजन देते हैं। इसलिए बेहतर पर्यावरण के लिए वृक्षारोपण को प्रोत्साहित करना चाहिए।


जल और स्वास्थ्य



यदि पृथ्वी का दो-तिहाई हिस्सा जल से व्याप्त है तो हमारे शरीर का भी एक बड़ा भाग जल-युक्त होता है। मानव शरीर का तकरीबन 66 प्रतिशत भाग जलीय है और, अपने शरीर में जल के स्तर को संतुलित रखने के लिए एक स्वस्थ मनुष्य को एक दिन में कम से कम 7 से 8 गिलास पानी पीना चाहिए। जाहिर है मानव शरीर के लिए जल बहुत ही महत्त्वपूर्ण तत्व है। हमारे द्वारा पिया गया पानी हमारे पूरे शरीर में पहुँचता है, और शरीर के प्रत्येक अंग में जल की आवश्कता को पूरी करता है।

जल के संबंध में एक और बात याद रखनी बहुत जरूरी है, और वह यह कि संसार के सारे तत्वों में जल ही सर्वाधिक घुलनशील पदार्थ है। ऐसे में वातावरण में मौजूद किसी भी तरह का हानिकारक पदार्थ बहुत ही आसानी से उसमें घुल जाता है। ऐसी परिस्थिति में अगर मनुष्य प्रदूषित पानी पीता है तो उसके शरीर के भीतर सारे अंगों में वह प्रदूषित पानी ही पहुँचता है। पिए गए पानी के साथ शरीर में पहुँचे जीवाणु और विषाणु सीधे हमारे गले और पेट को प्रभावित करते हैं। और गले के संक्रमण, फेफड़े की बीमारियों, आँत संबंधी रोगों के साथ-साथ पीलिया जैसे गंभीर रोगों की संभावनाएँ प्रबल हो जाती हैं।

साथ ही पर्यावरण संबंधी इन समस्याओं का प्रभाव मनुष्य के रक्त तक भी पहुँच जाता है और अक्सर रक्तजनित रोगों के रूप में उभरता है। रक्तप्रवाह के प्रभावित होने पर मनुष्य का रक्तचाप प्रभावित होता है, और फलस्वरूप, उच्च रक्तचाप जैसी समस्याएँ सामने आती हैं। यही नहीं, इन सारी परिस्थितियों के कारण दिल की बीमारियों की संभावना भी प्रबल हो जाती है।


समाधान



1. जाहिर तौर पर पानी की सफाई बहुत ही आवश्यक है। इसलिए नदियों, तालाबों और कुएँ वगैरह की समय-समय पर नियमित रूप से सफाई करते रहना चाहिए।
2. पानी के स्रोतों में किसी भी तरह की गंदगी, कूड़ा वगैरह नहीं फेंकना चाहिए।
3. पीने के पानी से शौच आदि की नालियों को दूर रखना चाहिए।


ध्वनि और स्वास्थ्य



आधुनिक समाज में अति-विकसित औद्योगीकरण ने प्रकृति की स्वाभाविक शांति भी भंग कर दी है। आज के वातावरण में चिड़ियों की चहचहाहट, नदियों की कलकल, ठंडी हवा की आवाज, या पत्तियों की खड़खड़ाहट जैसी मधुरता वातावरण में मौजूद ध्वनि प्रदूषण के कारण दुर्लभ प्रतीत होने लगी है। औद्योगीकरण के शोर में जहाँ एक ओर प्राकृतिक आवाजें खो सी गई हैं, वहीं इस शोर ने मानव मन पर बहुत ही बुरा प्रभाव डाला है। परिणामस्वरूप आज के मनुष्य के मन में चिड़चिड़ापन, व्यथा और संताप बहुत ज्यादा बढ़ गए है। इसके कारण न केवल उसके स्वभाव में रूखापन और चिड़चिड़ाहट आई है, बल्कि उसके तनाव और थकान का स्तर भी बहुत ज्यादा बढ़ गया है। इन सारे हालातों में मनुष्य के संतप्त मन का सीधा प्रभाव उसके शरीर पर पड़ता है, और शरीर की सहनशक्ति कम होती जाती है। यही नहीं, इसके चलते मनुष्य की जीवन प्रत्याशा भी कम होती है।


घरेलू पर्यावरण और प्रदूषण



दूसरी ओर घर के भीतर का पर्यावरण भी मनुष्य के स्वास्थ्य को काफी गहराई से प्रभावित करता है। घरों में प्रयोग की जाने वाली बहुत-सी चीजें घरेलू पर्यावरण को प्रभावित करती हैं, जैसे

1. डिटरजेंट साबुन
2. पेंट, वार्निश
3. परफ्यूम, कॉस्मेटिक्स, शैम्पू
4. सिंथेटिक कपड़े कालीन
5. कीटनाशी दवाएँ
6. स्याही
7. सुगंधित पदार्थ
8. अनेक घुलनशील पदार्थ।

हालांकि यह आवश्यक नहीं कि इस सूची में दिए गए सारे पदार्थों का हमारे स्वास्थ्य पर प्रभाव पड़े, लेकिन यह तो तय है, कि इसमें से ज्यादातर हमारे शरीर पर विपरीत प्रभाव ही डालते हैं। रोचक बात तो ये हैं, कि घरों में इस्तेमाल की जाने वाली रोजमर्रा की चीजों का दुष्प्रभाव हमारे शरीर पर अनजाने में ही पड़ता रहता है और कई बार हमें उन दुष्प्रभावों का अहसास भी नहीं होता। इस सूची में दिए गए पदार्थों का प्रयोग प्रत्येक घर में होता है। ऐसे में मान लीजिए कि घर में डिटरजेंट से सफाई की गई तो उस डिटरजेंट की महक पूरे घर में फैल जाती है, और हमारी नाक द्वारा हमारे शरीर में भी प्रवेश कर जाती है जो शरीर में घातक परिणाम छोड़ जाती है।

सामान्यतः इन पदार्थों के संपर्क में आने पर मनुष्य अपनी इंद्रियों द्वारा इन पदार्थों के हानिकारक रासायनिक तत्वों को आत्मसात कर लेता है, और इस तरह से शरीर में रोग के कीटाणुओं का प्रवेश होता है। यह जरूरी नहीं कि इन रोगाणुओं के कारण मानव शरीर किसी गंभीर रोग से ग्रस्त हो जाए, लेकिन कम से कम सामान्य चिड़चिड़ापन तो होता ही है।


सुगंध का स्वास्थ्य पर प्रभाव



हमारे आसपास अनेक प्रकार की सुगंध मौजूद रहती हैं जिनमें से कुछ तो हमारे जीन की जरूरत होती हैं, और कुछ का प्रयोग हम अपने शौक पूरे करने के लिए करते हैं, बिना इस बात पर ध्यान दिए कि इन पदार्थों का हमारे स्वास्थ्य पर क्या प्रभाव पड़ सकता है। जहाँ एक ओर कीटनाशक दवाओं जैसी चीजों का इस्तेमाल करना हमारी मजबूरी है, वहीं शौक के लिए प्रयोग किए जाने वाले परफ्यूम वगैरह भी हमारे स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव डालते हैं। सुगंधित पदार्थों के कारण मानव शरीर पर होने वाले प्रभाव इस प्रकार हैं-

1. सिरदर्द और माइग्रेन
2. एलर्जी और द्रवीय निस्सारण
3. सांस उखड़ने की समस्या
4. दमा
5. जुकाम
6. त्वचा पर दाने और खुजली
7. एक्जिमा
8. उल्टी और मितली
9. सिर चकराना

दरअसल होता यह है कि इन सुगंधित पदार्थों के सूक्ष्म कण हवा में मौजूद होते हैं, और जब भी मानव शरीर इन सुगंधित पदार्थों के संपर्क में आता है, वह सांस द्वारा, या त्वचा, आंखों और श्लेश्मा झिल्लियों द्वारा इन पदार्थों की अपने भीतर अवशोषित कर लेता है। फलस्वरूप ये कण शरीर के विभिन्न अंगों तक पहुँच जाते हैं और शरीर में रोग की संभावना बढ़ जाती हैं।


समाधान



अब ऐसे हालातों में प्रश्न ये उठता है, कि इन पदार्थों के दुष्प्रभावों से कैसे बचा जाए। क्या यह संभव है कि इन पदार्थों का प्रयोग ही पूरी तरह से बंद कर दिया जाए? सैद्धांतिक रूप से तो ऐसा किया जा सकता है लेकिन व्यवहार में संभवतः यह बुद्धिमत्तापूर्ण प्रतीत नहीं होता। इसलिए बेहतर तो यह होगा कि इस समस्या के ऐसे समाधान खोजे जाएं जो न केवल व्यावहारिक हों, बल्कि प्रकृति के नजदीक भी हों। जैसे

1. इन पदार्थों को बनाने में कम से कम रसायनों, और अधिक से अधिक प्राकृतिक घटकों का प्रयोग किया जाए
2. चूँकि एक जैसे अवयवों से बने हुए अनेक पदार्थों का एक साथ प्रयोग करने से उन अवयवों से होने वाले दुष्प्रभावों की संभावना कई गुना बढ़ जाती है, इसलिए कोशिश यह करनी चाहिए कि ऐसे नुकसानदेह पदार्थों का एक साथ प्रयोग कम से कम किया जाए।
3. घरों और भवनों का निर्माण इस तरह से किया जाना चाहिए कि उनमें बाहरी हवा का आवागमन भी अधिक से अधिक हो।
4. पेड़-पौधे पर्यावरण को स्वच्छ रखने के अचूक उपाय हैं। इसलिए घरों के भीतर और बाहर वृक्षारोपण को अधिकाधिक प्रोत्साहित करना चाहिए।

हालांकि यह जरूरी नहीं कि पर्यावरण को प्रभावित करने वाले उपर्युक्त कारकों का प्रभाव प्रत्येक मनुष्य पर समान रूप से हो, क्योंकि प्रत्येक मनुष्य की रोग-प्रतिरोधक क्षमता अलग-अलग होती है, लेकिन फिर भी लगातार संपर्क में आते रहने से ये हानिकाकरक पदार्थ हर किसी पर अपना कुछ न कुछ प्रभाव तो छोड़ ही जाते हैं। और परिणा सदैव एक ही होता है—रुग्ण मन और रूग्ण शरीर। हम जानते हैं कि स्वस्थ और सशक्त समाज के निर्माण के लिए स्वस्थ शरीर और संतुष्ट मन अनिवार्य है इसलिए मन और शरीर को रोगग्रस्त करने वाले इन हानिकारक पदार्थों को दूर करना ही हमारा प्रथम कर्तव्य होना चाहिए। केवल तभी हम एक शक्तिशाली और खुशहाल समाज की स्थापना कर सकेंगे।